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Kuch log ese hote hai jo itihash padhte hai,Kuch Ithihash Padhate hai, Kuch ese hote hai Jo NYDC mein aate hai Or Khud Itihash Banate Hai. Jai Hind Jai Bharat!...Khem Chand Rajora....A Great Leader's Courage to fulfill his Vision comes from Passion, not Position...Gajendra Kumar....National Youth Development Committee is a Platform which remove the hesitation and improve the motivation and talent of the Youth...Manu Kaushik..!!

About Manu

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मैं अपने प्यारे भारत को स्वर्ग से भी सुंदर बनाना चाहता हूँ जहाँ देवता भी आने को तरसें..इसे फ़िर से सोने की चिडि़या और विश्वगुरु बनाना चाहता हूँ ना सिर्फ़ धर्म के मामले में बल्कि हरेक क्षेत्र में..अपने देश को मैं फ़िर से इतना शक्तिशाली बना देना चाहता हूँ कि अगर ये जम्हाई भी ले ले तो पूरे विश्व में तूफ़ान आ जाय. मैं अपने भारतवर्ष ,अपने माता-पिता तथा सनातन वैदिक धर्म से अगाध प्रेम और सम्मान करता हूँ |
हमारे बारे में, हम बताएँगे, फिर भी, क्या आप समझ पाएंगे, नहीं न, फिर क्या, हम बताते आप उलझ जाते, आप समझते तो हम मुकर जाते, क्यूंकि अब किसी को किसी के बारे में जानने की, न तो चाहत है और न ही फुर्सत है |
वन्दे मातरम्... जय हिंद... जय भारत...
कोशिश तो कोई करके देखे,यहाँ सपने भी सच होते है ।
ये दुनिया इतनी बुरी नहीं, कुछ लोग अच्छे भी होते है ।।
~ मनु कौशिक

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Tuesday, 21 August 2012

इन सात लोगों को नींद में से भी जगा देना चाहिए...


 आचार्य चाणक्य द्वारा रचित चाणक्य नीति में सफलता प्राप्त करने के लिए अनेक सूत्र दिए गए हैं। जिन्हें जीवन में उतारने वाले व्यक्ति को निश्चित ही हर कदम सफलता प्राप्त होगी। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

द्वारपाल, सेवक, पथिक, समय क्षुधातुर पाय।

भंडारी विद्यारथी, सोवत सात जगाय।।

द्वारपाल, नौकर, राहगीर, भूखा व्यक्ति, भंडारी, विद्यार्थी और डरे हुए व्यक्ति को नींद में से तुरंत उठा देना चाहिए।

आचार्य चाणक्य की यह नीति आज के समय में भी सटीक है। यदि कोई विद्यार्थी अधिकांश समय सोने में व्यतीत करता है तो उसे अच्छा परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता। अत: सोते हुए विद्यार्थी को नींद से जगा देना चाहिए। इसी प्रकार यदि कोई मालिक काम के समय में नौकर सोता हुआ देख ले तो उसे नौकरी से निकाल देगा। अत: उसे भी उठा देना चाहिए। कोई राहगीर या यात्री कहीं रास्ते में सोता हुआ दिखाई दे तो उसे भी तुरंत उठा देना चाहिए। क्योंकि ऐसे में उसके सामान की चोरी का भय रहता है। इसी प्रकार यदि कोई भूखा व्यक्ति सोता हुआ दिखाई दे तो उसे भी उठा देना चाहिए और खाना खिला देना चाहिए।

चाणक्य कहते हैं कि अगर कोई भण्डार गृह का रक्षक, द्वारपाल या कोई डरा हुआ व्यक्ति सो रहा है तो इन्हें भी तुरंत उठा देना चाहिए क्योंकि इनके सोने से बहुत से लोगों को हानि का सामना करना पड़ सकता है।

शहीद उधम सिंह के घर की हालत देखकर आंसू आते है.

कोंग्रेस की सरकार नेहरू परिवार को याद करने के लिए लाखों रुपये बहाती है, लेकिन कभी भी देश के सच्चे सपूतों को याद नहीं करती, पिछले वर्ष आर टी आई से पता चला कि सैकड़ों  करोड़ रुपये इंदिरा व राजीव जयंती के नाम पर फूंके गये थे, जबकि सच्चे क्रन्तिकारी रानी लक्ष्मी बाई से लेकर सुभाष चन्द्र बोस तक किसी को भी आजतक याद नहीं किया गया, आइये हम शहीद उधम सिंह को भारत स्वाभिमान की और से नमन व स्मरण करते है.....
शहीद उधम सिंह के घर का यह चित्र हमारी भारत स्वाभिमान की सुनाम इकाई द्वारा भाई परमिंदर जोल्ली द्वारा भेजा गया है.

जहा आज वो लोग सत्ताओ का सुख भोग रहे है...जिन्होंने कोई कुबानी नहीं दी..........वही ऐसे वीर शहीद जिन्होंने भारत माता के अपमान का बदला लेने के लिए अपनी संकल्प की अग्नि को २० साल तक दबाये रखा और....जलियावाला कांड का बदला लिया....ऐसे  ही  पंजाब के वीर शहीद उधम सिंह को हम नमन करते है..............
तथाकथित देशभक्त जिनके वंशज आज सत्ताओ के शीर्ष पर  में है.......उनका द्वारा लूटा हुआ धन स्विस बांको में पड़ा है, देश के ८४ करोड़ लोग भूखे मर रहे है........
आइये आपको दिखाते है, शहीद उधम सिंह का संगरूर , सुनाम  स्थित घर , जिसको देखकर कोई यह नहीं कह सकता की यह किसी महान क्रिन्तिकारी का घर है...
आज तक सचे क्रन्तिकारी का इस देश के गदारो ने जिन्होंने ६५न सालो तक साशन किया कोई स्मारक नहीं बनाया,,,..लेकिन यहाँ पर एक परिवार की और से ४०० से अधिक योजनाये चल रही है,,,........
शहीद उधम सिंह का स्मारक देखकर  आंसू आते है..........


जी हाँ, यही टुटा फूटा स्मारक है, हमारे देश अपनी जान देने वाले का,इसके अतिरिक्त कहीं और कही कोई स्मारक नहीं यही पुश्तैनी स्थान उनके घर होता था.............


आज तक नेताजी का कोई स्मारक , पंडित बिस्मिल का, चंदेर्शेखर आजाद का, राजिंदर लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह का कोई भी स्मारक नहीं है, (अगर कोई है तो वह सरकार का नहीं बल्कि देशभक्त लोगो का बनवाया हुआ है).............
नई दिल्ली। भारत के महान क्रांतिकारियों में ऊधम सिंह का विशेष स्थान है। उन्होंने जलियांवाला बाग नरसंहार के दोषी माइकल ओडायर को गोली से उड़ा दिया था।


कुछ लोग अपने बलपर ही इस कार्य को कर रहे है.....उनकी यादो को जिन्दा रखे हुए


पंजाब में संगरूर जिले के सुनाम गांव में 26 दिसंबर 1899 में जन्मे ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा किए गए कत्लेआम का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी जिसे उन्होंने गोरों की मांद में घुसकर 21 साल बाद पूरा कर दिखाया। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडायर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में शांति के साथ सभा कर रहे सैकड़ों भारतीयों को अंधाधुंध फायरिंग करा मौत के घाट उतार दिया था।
क्रांतिकारियों पर कई पुस्तकें लिख चुके जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर चमन लाल के अनुसार जलियांवाला बाग की इस घटना ने ऊधम सिंह के मन पर गहरा असर डाला था और इसीलिए उन्होंने इसका बदला लेने की ठान ली थी। ऊधम सिंह अनाथ थे और अनाथालय में रहते थे, लेकिन फिर भी जीवन की प्रतिकूलताएं उनके इरादों से उन्हें डिगा नहीं पाई। उन्होंने 1919 में अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर जंग-ए-आजादी के मैदान में कूद पड़े।
जाने माने नेताओं डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के विरोध में लोगों ने जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी थी, जिसमें ऊधम सिंह पानी पिलाने का काम कर रहे थे। पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडायर किसी कीमत पर इस सभा को नहीं होने देना चाहता था और उसकी सहमति से ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने जलियांवाला बाग को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग करा दी। अचानक हुई गोलीबारी से बाग में भगदड़ मच गई। बहुत से लोग जहां गोलियों से मारे गए, वहीं बहुतों की जान भगदड़ ने ले ली। जान बचाने की कोशिश में बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएं में छलांग लगा दी। बाग में लगी पट्टिका के अनुसार 120 शव तो कुएं से ही बरामद हुए।


जी हाँ, यही टुटा फूटा स्मारक है, हमारे देश अपनी जान देने वाले का,इसके अतिरिक्त कहीं और कही कोई स्मारक नहीं यही पुश्तैनी स्थान उनके घर होता था.............

सरकारी आंकड़ों में मरने वालों की संख्या 379 बताई गई, जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोगों की इस घटना में जान चली गई। स्वामी श्रद्धानंद के मुताबिक मृतकों की संख्या 1500 से अधिक थी। अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉ. स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से ज्यादा थी। ऊधम सिंह के मन पर इस घटना ने इतना गहरा प्रभाव डाला था कि उन्होंने बाग की मिट्टी हाथ में लेकर ओडायर को मारने की सौगंध खाई थी। अपनी इसी प्रतिज्ञा को पूरा करने के मकसद से वह 1934 में लंदन पहुंच गए और सही वक्त का इंतजार करने लगे।


जी हाँ, यही टुटा फूटा स्मारक है, हमारे देश अपनी जान देने वाले का,इसके अतिरिक्त कहीं और कही कोई स्मारक नही यही पुश्तैनी स्थान उनके घर होता था.............

ऊधम को जिस वक्त का इंतजार था वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला जब माइकल ओडायर लंदन के कॉक्सटन हाल में एक सेमिनार में शामिल होने गया। भारत के इस सपूत ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के आकार के रूप में काटा और उसमें अपनी रिवॉल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए। चमन लाल के अनुसार मोर्चा संभालकर बैठे ऊधम सिंह ने सभा के अंत में ओडायर की ओर गोलियां दागनी शुरू कर दीं। सैकड़ों भारतीयों के कत्ल के गुनाहगार इस गोरे को दो गोलियां लगीं और वह वहीं ढेर हो गया।
अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के बाद इस महान क्रांतिकारी ने समर्पण कर दिया। उन पर मुकदमा चला और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में यह वीर हंसते हंसते फांसी के फंदे पर झूल गया।


कुछ लोग अपने बलपर ही इस कार्य को कर रहे है.....उनकी यादो को जिन्दा रखे हुए

शहीद उधम सिंह के माता पिता उनको अनाथ छोड़कर बचपन में चल बसे थे, जब वह ८ वर्ष के थे,,,,कुछ समय बाद २-३ साल बाद ही उनके बड़े भाई भी उनको छोड़कर चले गए (देहांत हो गया)

आपको ज्यादा सीधा-साधा नहीं होना चाहिए वरना हमेशा रहना पड़ेगा परेशान...

जीवन में कई बार हमें हमारे स्वभाव के कारण या तो सुख प्राप्त होता है या दुख। आजकल जैसा वातावरण है उसके अनुसार जो सीधे-साधे लोग हैं उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस संबंध आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

अतिहि सरल नहिं होइये, देखहु जा बनमाहिं।

तरु सीधे छेदत तिनहिं, बांके तरु रहि जाहि।।

जिन लोगों का स्वभाव अधिक सीधा-साधा है, उन्हें ऐसे नहीं रहना चाहिए क्योंकि यह अच्छा नहीं है। वन में हम देख सकते हैं जो पेड़ सीधे होते हैं सबसे पहले काटने के लिए उन्हें ही चुना जाता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिन लोगों का स्वभाव जरूरत से ज्यादा सीधा, सरल और सहज होता हैं उन्हें अक्सर समाज में परेशानियों का ही सामना करना पड़ता है। चालक और चतुर लोग इनके सीधे स्वभाव का गलत फायदा उठाते हैं। ऐसे लोगों को दुर्बल ही समझा जाता है। अनावश्यक रूप से लोगों की प्रताडऩा झेलना पड़ती है। अत्यधिक सीधा स्वभाव भी मूर्खता की श्रेणी में ही आता है। अत: व्यक्ति को थोड़ा चतुर और चालक भी होना चाहिए। ताकि वह जीवन में कुछ उल्लेखनीय कार्य कर सके। इसका एक सटीक और प्रत्यक्ष उदाहरण है जंगल में लगे सीधे वृक्ष। सामान्यत: देखा जा सकता है कि जंगल में लगे सीधे वृक्ष ही सबसे काटने के लिए चुने जाते हैं। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी जो लोग सीधे-साधे होते हैं उनसे चतुर लोग अनुचित लाभ अवश्य ही उठाते हैं।

बिरसा मुंडा : साहस का एक नाम

बिरसा मुंडा : जन्म 15 नवम्बर 1875 मृत्यु 9 जून 1900

हिन्दुस्तान की धरती पर समय-समय पर महान और साहसी लोगों ने जन्म लिया है. भारतभूमि पर ऐसे कई क्रांतिकारियों ने जन्म लिया है जिन्होंने अपने बल पर अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए थे. ऐसे ही एक वीर थे बिरसा मुंडा. बिहार और झारखण्ड की धरती पर बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा अगर दिया जाता है तो उसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह भी है. मात्र 25 साल की उम्र में उन्होंने लोगों को एकत्रित कर एक ऐसे आंदोलन का संचालन किया जिसने देश की स्वतंत्रता में अहम योगदान दिया. आदिवासी समाज में एकता लाकर उन्होंने देश में धर्मांतरण को रोका और दमन के खिलाफ आवाज उठाई.


Birsa Mundaबिरसा मुंडा का जीवन

बिरसा मुंडा(Birsa Munda) का जन्म  15 नवम्बर 1875 में लिहातु, जो रांची में पड़ता है, में हुआ था. यह कभी बिहार का हिस्सा हुआ करता था पर अब यह क्षेत्र झारखंड में आ गया है. साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आए. सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था.


बिरसा मुंडा को अपनी भूमि, संस्कृति से गहरा लगाव था. जब वह अपने स्कूल में पढ़ते थे तब मुण्डाओं/मुंडा सरदारों की छिनी गई भूमि पर उन्हें दु:ख था या कह सकते हैं कि बिरसा मुण्डा आदिवासियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे तथा वे वाद-विवाद में हमेशा प्रखरता के साथ आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे.


ज्वाला की शुरूआत

उन्हीं दिनों एक पादरी डॉ. नोट्रेट ने लोगों को लालच दिया कि अगर वह ईसाई बनें और उनके अनुदेशों का पालन करते रहें तो वे मुंडा सरदारों की छीनी हुई भूमि को वापस करा देंगे. लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया बलिक ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गई जिससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा. उनकी बगावत को देखते हुए उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया. फलत: 1890 में बिरसा तथा उसके पिता चाईबासा से वापस आ गए.


1886 से 1890 तक बिरसा का चाईबासा मिशन के साथ रहना उनके व्यक्तित्व का निर्माण काल था. यही वह दौर था जिसने बिरसा मुंडा के अंदर बदले और स्वाभिमान की ज्वाला पैदा कर दी. बिरसा मुंडा पर संथाल विद्रोह, चुआर आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड़ा. अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी. उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे.


BIRSA MUNDA-A GREAT HERO OF INDIAबिरसा मुंडा का संघर्ष

बिरसा मुंडा न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति पैदा करने का भी संकल्प लिया. बिरसा ने गांव-गांव घूमकर लोगों को अपना संकल्प बताया. उन्होंने ‘अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज’ (हमार देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका.


उनकी गतिविधियां अंग्रेज सरकार को रास नहीं आई और उन्हें 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी. लेकिन बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला. उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा करते थे. उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी.


1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया. अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला. 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं. जनवरी 1900 में जहां बिरसा अपनी जनसभा संबोधित कर रहे थे, डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे. बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी. अंत में स्वयं बिरसा 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार हुए.


9 जून, 1900 को रांची कारागर में उनकी मौत हो गई. उनकी मौत से देश ने एक महान क्रांतिकारी को खो दिया जिसने अपने दम पर आदिवासी समाज को इकठ्ठा किया था.


बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है. उन्होंने वनवासियों और आदिवासियों को एकजुट कर उन्हें अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार किया. इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया. ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया .


अपने पच्चीस साल के छोटे जीवन में ही उन्होंने जो क्रांति पैदा की वह अतुलनीय है. बिरसा मुंडा धर्मान्तरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले महान सेनानायक थे.

इंकलाब जिंदाबाद '' सिर्फ नारा नहीं है ''

इंकलाब जिंदाबाद '' सिर्फ नारा नहीं है ''

modern रिव्यू के संपादक भी रामानंद चटोपाध्याय ने अपनी एक संपादकीय टिपणी में भगत सिंह के नारे '' इंकलाब जिंदाबाद ''
को खून खराबे और अराजकता का प्रतिक बताया भगत सिंह ने 3 दिसंबर 1929  को अपनी और अपने साथी बटुकेश्वर दत्त की
तरह से श्री चटोपाध्याय को पात्र लिखा |

श्री संपादक जी ,

' 'modern  रिव्यू ' '

आपने अपने सम्पादित पात्र के दिसंबर 1929 क अंक में एक टिप्पणी ''इंकलाब जिंदाबाद '' के शीर्षक से लिखी है और एस नारे को निरर्थक ठेराने की चेष्टा की है आप सरीखे परिपक्व विचारक तथा अनुभवी और यशस्वी संपादक की रचना में दोष निकलना तथा उसका प्रतिवाद
करना , जिसे प्रतेयक भारतीय सम्मान की द्रिष्टी से देखता है , हमारे लिए एक बड़ी धर्ष्टता होगी | तो भी एस प्रशन का उत्तर देना और यह बताना हम अपना दायित्व समझते है की एस नारे से हमारा क्या अभिप्राय है

यह आवश्यक है , क्यूंकि में इस नारे को सब लोगो तक पहुँचाने का कार्य हमारे हिस्से में आया है ,इस नारे की रचना हमने नहीं की है यही नारा रूस के क्रांतिकारी आन्दोलन में प्रयोग किया गया है  प्रसिद्ध समाजवादी लेखक 'अप्टन सिक्लेयर 'ने अपने उपन्यासों ''वोस्टन'' और आइलमें यही नारा कुछ अराजकता वादी क्रांतिकारी पत्रों के मुख से प्रयोग कराया है ,इसका अर्थ जरी रहें और कोई भी व्यवस्था अल्प समय के लिए भी स्थाई न रह सके ,दुसरे शब्दों में देश और समाज में अराजकता फेली  रहें |

दीर्घकाल में प्रयोग में आने के कारन इस नारे को एक ऐसे विशेष भावना प्राप्त हो चुकी है ,जो संभव है की भाषा के नियमो एवं कोष के आधार पर इसके शब्दों से उचित तर्कसम्मत रूप में सिद्ध हो पाए ,परन्तु इसके साथ ही नारे से उन विचारों को प्रथक नहीं किया जा सकता ,जो उसके साथ जुड़े हुए है ऐसे समस्त नारे एक ऐसे स्वीक्रत अर्थ के घोतक है ,जो एक सीमा तक उनमे उत्पन्न हो गए है तथा एक सीमा तक उनमे निहित है

उदहारण  के लिए हम ''यतीन्द्र नाथ जिंदाबाद '' का नारा लगते है   इससे हमारा तात्पर्य यह होता ही की उनके जीवन के महँ कार्यों
आदर्शों तथा उस अथक उत्साह को सदा सदा के लिए बनाये रखें ,इस महानतम बलिदान को उस आदर्श  के लिए अकथनीय
कष्ट झेलने एवं असीम बलिदान करने की प्रेरणा दी यह नारा लगाने से हमारी यह लालसा प्रकट होती है की हम भी अपने
आदर्शो के लिए ऐसे ही अथक उत्साह को अपनाये यही वह भावना है ,जिसकी हम प्रशंसा करते हैं इसी प्रकार
हमे ''इन्कलाब ''शब्द का अर्थ भी कोरे शाब्दिक रूप में नहीं लगाना चाहिए |
इस शब्द का उचित एवं अनुचित प्रयोग करने वाले लोगो के हितो के अधर पर इसके साथ विभिन्न अर्थ एवं विभिन्न
विशेस्तायें जोड़ी जाती है , क्रांतिकारियों  की द्रष्टि में यह पवित्र वाक्य है ,हमने इस बात को ट्रिब्यूनल के सम्मुख
अपने वक्तव्य में स्पष्ट करने का
प्रयास किया था |

इस वक्तव्य में हमने कहा था की क्रांति (इन्कलाब) का अर्थ अनिवार्य रूप में सशस्त्र आन्दोलन नहीं होता |
बम और पिस्तौल कभी कभी क्रांति को सफल बनाने के साधन मात्र हो सकते है इसमे भी संदेह नहीं है की आन्दोलन में
कभी कभी बम एवं,पिस्तौल एक महत्पूर्ण साधन सिद्ध हो सकते है ,परन्तु केवल इसी कारण से बम और पिस्तौल क्रांति
के पर्यायवाची नहीं हो जाते ,विद्रोह को क्रांति नहीं कहा जा सकता ,यधपि यह हो सकता है की विद्रोह का अंतिम परिणाम क्रांति हो |

प्रगति की आकांशा
इस वाक्य में क्रांति शब्द का अर्थ '' प्रगति  के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांशा है लोग साधारणतया जीवन की परंपरागत दशाओं के साथ चिपक जाते है और परिवर्तन के विचार मात्र से ही कपने लगते है यही एक अकर्मण्यता की भावना है ,जिसके स्थान पर क्रांतिकारी भावना जाग्रत करने की आवश्यकता है दुसरे शब्दों में कहा जा सकता है की अकर्मण्यताका वातावरण निर्माण हो जाता है और रुढ़िवादी शक्तियां मानव -समाज को कुमार्ग पर ले जाती है ये परिस्तिथियाँ मानव समाज की उन्नत्ति में गति रोध का कारण बन जाती है

क्रांति की इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा की स्थायीं तोर पर ओतप्रोत रहनी चाहिए ,जिससे की रुढ़िवादी शक्तियां मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिए संघठित न हो सके यह आवशयक है की पुरानी व्यवस्था सदेव रहे और वह नै व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहें,जिससे की एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके यह हमारा वह अभिप्राय जिसको ह्रदय में रखकर हम इन्कलाब जिंदाबाद का नारा बुलंद करते है

भवदीय ---
भगत सिंह , बटुकेश्वर दत्त

चाणक्य के 15 सूक्ति वाक्य


चाणक्य के 15 सूक्ति वाक्य ----

1) "दूसरो की गलतियों से सीखो अपने ही ऊपर प्रयोग करके सीखने को तुम्हारी आयु कम पड़ेगी."
2)"किसी भी व्यक्ति को बहुत ईमानदार नहीं होना चाहिए ---सीधे बृक्ष और व्यक्ति पहले काटे जाते हैं."
3)"अगर कोई सर्प जहरीला नहीं है तब भी उसे जहरीला दिखना चाहिए वैसे दंश भले ही न दो पर दंश दे सकने की क्षमता का दूसरों को अहसास करवाते रहना चाहिए. "
4)"हर मित्रता के पीछे कोई स्वार्थ जरूर होता है --यह कडुआ सच है."
5)"कोई भी काम शुरू करने के पहले तीन सवाल अपने आपसे पूछो ---मैं ऐसा क्यों करने जा रहा हूँ ? इसका क्या परिणाम होगा ? क्या मैं सफल रहूँगा ?"
6)"भय को नजदीक न आने दो अगर यह नजदीक आये इस पर हमला करदो यानी भय से भागो मत इसका सामना करो ."
7)"दुनिया की सबसे बड़ी ताकत पुरुष का विवेक और महिला की सुन्दरता है."
8)"काम का निष्पादन करो , परिणाम से मत डरो."
9)"सुगंध का प्रसार हवा के रुख का मोहताज़ होता है पर अच्छाई सभी दिशाओं में फैलती है."
10)"ईस्वर चित्र में नहीं चरित्र में बसता है अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ."
11) "व्यक्ति अपने आचरण से महान होता है जन्म से नहीं."
12) "ऐसे व्यक्ति जो आपके स्तर से ऊपर या नीचे के हैं उन्हें दोस्त न बनाओ,वह तुम्हारे कष्ट का कारण बनेगे. सामान स्तर के मित्र ही सुखदाई होते हैं ."
13) "अपने बच्चों को पहले पांच साल तक खूब प्यार करो. छः साल से पंद्रह साल तक कठोर अनुशासन और संस्कार दो .सोलह साल से उनके साथ मित्रवत व्यवहार करो.आपकी संतति ही आपकी सबसे अच्छी मित्र है."
14) "अज्ञानी के लिए किताबें और अंधे के लिए दर्पण एक सामान उपयोगी है ."
15) "शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है. शिक्षित व्यक्ति सदैव सम्मान पाता है. शिक्षा की शक्ति के आगे युवा शक्ति और सौंदर्य दोनों ही कमजोर हैं ."


बाघ की गुफा में मदन लाला धींगरा

मदन लाला धींगरा
बाघ की गुफा में मदन लाला धींगरा


मदनलाल ढींगरा (18सितम्बर 1883 - 17 अगस्त, 1909) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारी
सेनानी थे। वे इंग्लैण्ड में अध्ययन कर रहे थे जहाँ उन्होने कर्जन वायली नामक एक ब्रिटिश अधिकारी की
गोली मारकर हत्या कर दी। यह घटना बीसवीं शताब्दी में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की कुछेक प्रथम
घटनाओं में से एक है।
मदललाल ढींगरा का जन्म सन् 1883 में पंजाब में एक सम्पन्न हिन्दू परिवार में हुआ था। उनकी ठीक-ठीक
जन्मतिथि और जन्मस्थान का पता नहीं है। उनके पिता सिविल सर्जन थे और अंग्रेजी रंग में पूरी तरह रंगे हुए थे
किन्तु माताजी अत्यन्त धार्मिक एवं भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण महिला थीं। उनका परिवार अंग्रेजों का
विश्वासपात्र था और जब मदनलाल को भारतीय स्वतंत्रता सम्बन्धी क्रान्ति के आरोप में लाहौर के एक कालेज से
निकाल दिया गया तो परिवार ने मदनलाल से नाता तोड़ लिया। मदनलाल को एक क्लर्क के रूप में,
एक तांगा-चालक के रूप में और एक कारखाने में श्रमिक के रूप में काम करना पड़ा। वहाँ उन्होने एक
यूनियन (संघ) बनाने की कोशिश की किन्तु वहाँ से भी उन्हें निकाल दिया गया। कुछ दिन उन्होने मुम्बई में भी
काम किया। अपनी बड़े भाई की सलाह पर वे सन् 1906 में उच्च शिक्षा के लिये इंग्लैण्ड गये जहाँ युनिवर्सिटी
कालेज लन्दन में यांत्रिक प्रौद्योगिकी (Mechanical Engineering) में प्रवेश लिया। इसके लिये उन्हें उनके बड़े
भाई एवं इंग्लैण्ड के कुछ राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं से आर्थिक मदद मिली।

सावरकर के साथ मदन लाला धींगरा

सावरकर के सानिध्य में
लन्दन में ढींगरा भारत के प्रख्यात राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर एवं श्यामजी कृष्णवर्मा के सम्पर्क
में आये। वे लोग ढ़ींगरा के प्रचण्ड देशभक्ति से बहुत प्रभावित हुए। ऐसा विश्वास किया जाता है कि सावरकर
ने ही मदनलाल को अभिनव भारत मण्डल का सदस्य बनवाया और हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया।
मदनलाल, इण्डिया हाउस के भी सदस्य थे जो भारतीय विद्यार्थियों के राजनैतिक क्रियाकलापों का केन्द्र था।
ये लोग उस समय खुदीराम बोस, कन्नाई दत्त, सतिन्दर पाल और कांशी राम जैसे क्रान्तिकारियों को मृत्युदण्ड
दिये जाने से बहुत क्रोधित थे। कई इतिहासकार मानते हैं कि इन्ही घटनाओं ने सावरकर और ढींगरा को सीधे
बदला लेने के लिये विवश किया।



बाघ की गुफा में मदन लाला धींगरा

लन्दन 10 मई 1909 प्रवासी भारतियों का अपना क्लब इंडिया हॉउस ब्रिटश राज सत्ता का विरोध करके ,
भारत को स्वतंत्र बनाने का सपना देखने वाले अनेक  उत्साही yuvako श्यामजी कृष वर्मा ,विनायक दामोदर
सावरकर ,पांडुरंग महादेव बापट,आदि के संरक्षण में मनाया जा रहा ,10 मई 1857 की स्मृती में पचासवा
वार्षिकोत्सव हॉउस पूरी तरह भारतीय पद्दति से सजा हुआ था प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अनेक खायात्नमा
वीर बादशाह 'जफ़र' नाना साहेब ,रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे ,मोलवी अहमद शाह ,रजा कुंवर सिंह के चित्र
और नाम पत्ता लगे हुए थे धुप दीप और फूलो से उन्हें सदर सज्जित किया गया था सुदूर छेत्रों से भी भारतीय
प्रवासी युवक अनेक श्रेणियों के लोग थे वकील ,डाक्टर,प्रोफ़ेसर ,व्यवसाई ,स्त्री ,पुरुष ,बच्चे ,सभी सब राष्ट्रिय
गौरव की भावना से उत्साहित हो रहें थे |


मदन लाला धींगरा


''वन्देमातरम गीत के बाद क्लब की प्रगति के लिए लोगो ने दिल खोल कर चंदा दिया कई लोगो के भाषण हुए
1857 कीक्रांति का बखान करते हुए उन्होंने भविष्य में भारत के स्वतंत्र होने की कामना व्यक्त की वातावरण
उल्लास और उत्साह से पूर्ण हो उठा |
इस क्लब ने लन्दन वासी भारतीयों को एकता की प्रबल प्रेरणा दी वे प्राय :आपस में मिलते और स्वाधीनता पर
विचार विमर्श करते थे लेकिन प्रवासियों में एक वर्ग ऐसा था ,जो इनस्वाधीनता के उपासको से सहमत नहीं था
वह देश से राजभक्ति को अधिक महत्व देता था --ब्रिटिश समर्थक था

कुछ दिन बाद श्याम जी कृष्ण वर्मा ,लन्दन छोड़कर पेरिस में रहने लगे ,ताकि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय
युवको की सहायता करते रहें लन्दन में उन पर संदेह किया जा सकता था ,क्यूंकि भारत में उनके कई समर्थको ने
कई कांड कर डाले थे और उनका समाचार पाकर में उनके कई समर्थको ने कई  कांड कर डाले थे और उनका
समाचार पाकर लन्दन वाले भारतीय युवक बहुत गरम हो उठे थे वीरेंद्र कुमार घोष का अलीपुर केस और विनायक
सावरकर के भाई गणेश सावरकर की जोशीली कविताओं पर अंग्रेजो की कोप दृष्टी का समाचार उन्हें उतेजित कर
रहा था विद्रोही कविताओं को भयंकर राज विद्रोह का सूत्रपात बताकर अँगरेज़ न्यायाधीश ने गणेश सावरकर को
आजीवन काले पानी की सजा दी यही नहीं उनकी साडी संपत्ति भी जब्त कर ली गई
रोष बढ़ता जा रहा था अंग्रेजों के विरुद्ध ,भारतीय युवक संघटित होकर कुछ करने को उतावले हो रहें थे विनायक
सावरकर ने तो 20 जून 1909 की एक सभा में घोषित भी कर दिया था की अब सरकार ने दमन और आतंक का
सहारा ले लिया है इसलिए हम भी उसको वेसे ही जवाब देंगे

एक दिन 'इण्डिया हाउस में कई छात्रों के बीच किसी ने यह रहस्य उदघाटित किया --"ब्रिटिश शासन की और से हम
भारतियों की सुख सुविधा का ध्यान रखने के लिए यहाँ नियुक्त कर्जन वायली नमक अधिकारी ,वास्तव में एक
जासूस है वह हमारे बीच घुल मिलकर असल में हमारे भेद लेता है उसका उद्देश्य हमारा हित नहो,बल्कि हमे किसी
षड्यंत्र में फंसना है और यही कारन है की वह अपने व्यवहार में एक सामान्यअँगरेज़ से कहीं अधिक सरल ,
म्रदुभाशी और भोला जान पड़ता है लेकिन सचाई यह है की वह एक भयंकर सांप है और किसी भी समय हम सब
को एक साथ डस सकता है '

छात्रों को रोमांच हो आया ''अच्छा...ऐसे योजना है उसकी ?ऐसा षड्यंत्र रच रहा है वह ? ठीक है देखेंगे उसे भी

कहते हुए एक युवक ने मुट्ठियाँ भींच कर छाती तन इ और होंठ चबाते हुए ,किसी द्रढ़ निश्चय के साथ उठ खड़ा
हुआ परिवार कट्टर ब्रिटिश भक्त था ,
इसयुवक का नाम था मदन लाल धींगरा रूप रेखा से बड़ा सुन्दर शोकिन .लेकिन ह्रदय फौलाद का कट्टर देश भक्त ?
उसका परिवा  पर वह आज़ादी का दीवाना था उसे अंग्रेजो की दासता में वैभव पसंद नहीं था मात्रभूमि की सेवा में
काँटों पर चलने का उत्साही था
उसने हवा में मुक्का तानते हुए साथियों से कहा
"निश्चित रहो हमे डसने से पहले ही वायली को कुचल दिया जायेगे "
दस दिन बाद सन 1909 की जुलाई की पहली तारीख थी इंडिया हाउस के बड़े सभागार ''जहाँगीर हॉल "में
भारतीय विद्यार्थियों की सभा हो रही थी मदन लाल धींगरा भी उसमे
समिलित थे सभा समाप्ति के बाद ,जब सर कर्ज़न वायली अभ्यागतो से मिल जुल रहें थे ,मदन लाला ने
उनकी और देखा सर वायली ने समझा ,यह युवक मुझे से मिलने को आतुर हो रहा है वे मदन लाल की
और मुस्कुराते हुए बढे किन्तु उस छदम मुस्कान को देखकर ,उसकी भयंकरता का अनुभव करके ,मदन
के बदन में आग लग गई तैयार वह पहले से ही थे ,वायली को सामने पाकर उन्होंने जेब से रिवोल्वर
निकला और निशाना साधकर गोली चला दी वायली महोदय ब्रिटिश भक्त और भारत द्रोह का पुरुस्कार सहे
जाते हुए, छण भर में ही सदा के लिए सो गए
अचानक इस तरह रंग में भंग हुआ देखकर सभा में खलबली मच गई वायली को गिरते देखकर
श्रीलाल काका नाम का एक ब्रिटिश भक्त भारतीय मदन लाल की और दौड़ा मदन लाल ने उस देश द्रोही के
सिने में भी एक गोली उतार दी

अब तक कितने ही अँगरेज़ अधिकारीयों और पुलिस के जवानों ने उन्हें घेर लिया था
मदन लाल का उद्देश्य पूरा हो चूका था उन्होंने रिवोल्वर फेंक दिया और सहज भाव से ,अविचित स्वर में
पुलिस वालो से कहा तहरो कोई जल्दी नहीं है में चस्मा पहन लूँ ,फिर मेरे हाथ बाँधो '
उनकी निर्भीकता ,उनकी साहसी मनोवृति और धीरज देखकर अंग्रेजो का दल स्तंभित रह गे
तलाशी में मदन लाल के पास एक पर्चा मिला ,जिसमे लिखा था की मेने जान बुझकर अंग्रेज़की हत्या की है
भारतियों को जिस प्रकार अन्याय पूर्वक फंसी और काले पानी का दंड दिया जा रहा है उसके प्रति विरोध
प्रदर्शन का यह भी एक ढंग है |

वायली हत्याकांड ने इंग्लेंड ही नहीं ,पुरे ब्रिटिश साम्राज्य में हल चल मचा दी
विश्व के अख़बारों ने इस घटना को प्रकाशित किया
मदनलाल पर लन्दन की अदालत में मुकदमा चलाया गया मुक़दमे के दौरान मदन लाल ने अपने बयां में
कहा था "अगर जर्मनी को इंग्लॅण्ड पर शाशन करने का अधिकार नहीं है ,तो इंग्लेंड को भी भारत पर राज्य
करने का अधिकार नहीं है




मदन लाला धींगरा की स्मृति में

मेरे देश का अपमान मेरे इश्वर का अपमान है मुझे जैसे धन और बुध्धि से हीन व्यक्ति अपनी मात्रभूमि को सिवा
रक्त के और क्या दे सकते है मेरी इश्वर से प्राथना है की जब तक मेरी मात्रभूमि को स्वतंत्रता न मिल जाये ,में
उसकी गोद में बार बार जन्म लेकर उसी की सेवा में मरता रहूँ में तुम्हारे (अंग्रेजी न्यायाधीश के )अधिकार को
नहीं मानता यूँ में तुम्हारे हाथ में हूँ ,जो चाहो ,कर सकते हो पर याद रखो एक दिन भारत सबल होगा ,और तब
हम वह सब कुछ कर सकेंगे जो आज करना चाहते है
न्यायाधीश ने उन्हें मृत्यु दण्ड दिया |
सजा सुनकर मदन लाल ने कहा मुझे गर्व और संतोष है की मेरा तुछ जीवन मात्रभूमि की सेवा में अर्पित हो रहा है
16 अगस्त 1909 को मदन लाल .लन्दन में फंसी के फंदे पर झूलकर विश्व के स्वाधीनता उपासको को श्रेणी में एक
प्रमुख स्थान के अधिकारी हो गए
मदन लाल की जेब से बरामद पर्चे को अदालत में पढने नही दिया गया था बाद में उसे अखबार में प्रकाशित कराया गया
मदन लाल के इस प्रयास और पर्चे के मजमून की ,अंग्रेजी अख़बारों ने बड़ी निंदा की थी ,उनकी द्रष्टि में मदन लाल के
स्वाधीनता की लड़ाई को बगावत के रूप में दिखाया गया था किन्तु आयरलैंड के अखबारों ने छापा  था
आयरलैंड उस भारतीय युवक मदनलाल धींगरा के प्रति सम्मान व्यक्त करता है क्यूँ की उन्होंने अपने देश के लिए सर्वस्व
त्याग दिया ,उन्होंने अपने प्राण भी इसी उद्देश्य में विसर्जित कर दिए
माँ भारती के ऐसे वीरों को शत शत नमन ..........जा माँ भारती 
ब्रिक्स्टन जेल जहां मदनलाल ढींगरा तथा ,वीर सावरकर जी को रखा गया था.ब्रिक्स्टन जेल का अनधुरूनी हिस्सा ...!
ब्रिक्स्टन जेल जहां मदनलाल ढींगरा तथा ,वीर सावरकर जी को रखा गया था.