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Kuch log ese hote hai jo itihash padhte hai,Kuch Ithihash Padhate hai, Kuch ese hote hai Jo NYDC mein aate hai Or Khud Itihash Banate Hai. Jai Hind Jai Bharat!...Khem Chand Rajora....A Great Leader's Courage to fulfill his Vision comes from Passion, not Position...Gajendra Kumar....National Youth Development Committee is a Platform which remove the hesitation and improve the motivation and talent of the Youth...Manu Kaushik..!!

About Manu

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मैं अपने प्यारे भारत को स्वर्ग से भी सुंदर बनाना चाहता हूँ जहाँ देवता भी आने को तरसें..इसे फ़िर से सोने की चिडि़या और विश्वगुरु बनाना चाहता हूँ ना सिर्फ़ धर्म के मामले में बल्कि हरेक क्षेत्र में..अपने देश को मैं फ़िर से इतना शक्तिशाली बना देना चाहता हूँ कि अगर ये जम्हाई भी ले ले तो पूरे विश्व में तूफ़ान आ जाय. मैं अपने भारतवर्ष ,अपने माता-पिता तथा सनातन वैदिक धर्म से अगाध प्रेम और सम्मान करता हूँ |
हमारे बारे में, हम बताएँगे, फिर भी, क्या आप समझ पाएंगे, नहीं न, फिर क्या, हम बताते आप उलझ जाते, आप समझते तो हम मुकर जाते, क्यूंकि अब किसी को किसी के बारे में जानने की, न तो चाहत है और न ही फुर्सत है |
वन्दे मातरम्... जय हिंद... जय भारत...
कोशिश तो कोई करके देखे,यहाँ सपने भी सच होते है ।
ये दुनिया इतनी बुरी नहीं, कुछ लोग अच्छे भी होते है ।।
~ मनु कौशिक

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Tuesday, 21 August 2012

नोचते भी गए ,लुटते भी गए देश के नेता सिर्फ यही जाने ,


''नोचते भी गए ,लुटते भी गए देश के नेता सिर्फ यही जाने ,
 जीना तो उसी का जीना है जो लूटना अपने वतन को जाने "
''ऐ वतन ऐ वतन हम को तेरी कसम  |
 तुझे बेच के ही पूरा अब दम लेंगे हम   |
 मात्रभूमि क्या चीज़ है विदेशियों के कदमो में हम ,
 इस देश के स्वाभिमान को चढ़ा जायेंगे
"ऐ वतन ऐ वतन ........

''कोई अमरीका से ,कोई ऑस्ट्रेलिया से ,कोई चाइना से है कोई है ब्रिटेन से ,
 विदेशी कम्पनियो को फिर से बुला बुला के लाये है है हम
"हर इक राष्ट्र से दुनिया के हर इक कोनो से ,
 हर इक राष्ट्र से दुनिया के हर इक कोनो से ........
 पार्टी कोई भी सही पर धर्म (पैसा) एक है |
 घोटालो पे घोटाले करते जायेंगे हम |
"ऐ वतन ऐ वतन ........

''हम रहें न रहें इसका कुछ गम नहीं ,
 इस देश को तो पूरा नोंच खायेंगे हम |
"हमारी पीढियां ऐश से जियेंगी तो क्या
 माँ भारती को पूरा लहू लुहान कर जायेंगे हम |
 माँ भारती को पूरा लहू लुहान कर जायेंगे हम.............
 बेच के विदेशियों के हाथो में इस देश को
 देखना फिर से गुलाम हम बना जायेंगे |
"ऐ वतन ऐ वतन ........

"तेरी जानिब उठी जो सरफरोशी की लहर ,
 उस लहर को मिटाते ही जायेंगे हम
"मेरे विदेशी खातो पे जो रखी तुने कहर की नज़र ,
 उस नज़र को झुका के ही दम लेंगे हम
 उस नज़र को झुका के ही दम लेंगे हम ...........
 जो भी पद आएगा , अब सामने
 उस पद की गरिमा को भी हम मिटा जायेंगे |
"ऐ वतन ऐ वतन ........

"चाहे गालियाँ दो,या मुहं पे थप्पड़ जड़ो ,
 देश को बेचने अब हम चल दिए
 बहुमत दिया था लोगो ने जिस हाथ से ,
 उन्हें विदेशी बेड़ियों में जकड के हम निकल लिए
" तुम न देखोगे कल की बहारे तो क्या
 अपनी पीढ़ियों के लिए तो हम कमा जायेंगे |

''ऐ वतन ऐ वतन हम को तेरी कसम  |
 तुझे बेच के ही पूरा अब दम लेंगे हम   |

..................
लेखक
राजेश कुमार

क्रांतिकारी दिनेश गुप्ता


दिनेश गुप्ता का जन्म 6 दिसंबर 1911में ग्राम जोशोलोंग जिला मुंशीगंज (वर्तमान बंगलादेश) में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात स्नातक शिक्षा प्राप्त करने हेतु ढाका कॉलेज में प्रवेश लिया। वहीं दिनेश गुप्ता ने सन १९२८ में बंगाल क्रांतिकारी संघ (नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा गठित) की सदस्यता ग्रहण की। जो प्रारंभ में राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का घटक दल थी परन्तु कालान्तर में कांग्रेस की नीतियों से खिन्न होकर स्वयं को अलग कर सशस्त्र क्रांति से जोड़ लिया एवं क्रूर अँगरेज़ अधिकारीयों को दंड देने की ठानी।

स्वतंत्र भारत में आज के इतिहासकारों ने एक पक्षपातपूर्ण धारणा बना डाली हैं कि भारत पर राज करने वाले अंग्रेजों को यहाँ से भगाने में अहिंसा का झंडा लेकर चलने वालों का ही योगदान था जबकि गर्म दल से सम्बंधित सशत्र क्रांति करने वाले, अपने जीवन की आहुति देने वाले,अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले हजारों ऐसे क्रांतिकारियों की अवहेलना न केवल उन गुमनाम शहीदों का अपमान हैं अपितु भारत के इतिहास के साथ अन्याय भी हैं.अंग्रेज अफसरों द्वारा लिखे गए लेखों, पुस्तकों से पता चलता हैं की उन्हें भारत में रहते हुए सबसे ज्यादा भय,डर अगर किसी से लगता था तो वो सर पर कफ़न बांध कर, हाथ में पिस्तोल लेकर आज़ादी का गीत गाते हुए उन दीवानों से ,उन जवान युवकों से जिन्हें अपने घर,परिवार,आमदनी, रोजी-रोटी की परवाह न थी अगर परवाह थी तो बस केवल और केवल भारत देश को आजाद करवाने की.आज की जवान पीढ़ी विशेषकर भारत के पूर्वी हिस्से यानि बंगाल से जो सम्बन्धित नहीं हैं उनमें से कितनो ने अपने जीवन में क्रांतिवीर दिनेश चन्द्र गुप्ता का नाम सुना हैं जिन्होंने भारत माँ की बलिवेदी पर केवल १९ वर्ष की अल्पायु में हस्ते हस्ते अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे.
अविभाजित भारत के मुन्सीगंज जिले के जोशागंज गाँव में आज से ठीक १०० वर्ष पहले वीर दिनेश चन्द्र गुप्ता का जन्म हुआ था. बचपन से कुशाग्र बुद्धि दिनेश चन्द्र भारतीयों के अधिकारों को अंग्रेजी बूटों के तले कुचलते देख व्यथित हो उठते थे.१९२८ में आप नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा स्थापित करे गए क्रन्तिकारी संगठन बंगाल वोलुयुंटर से जुड़ गए और अस्त्र-शास्त्र में ट्रेनिंग लेकर पारंगत हो गए.  उन दिनों अंग्रेज अधिकारी किसी भी भारतीय क्रन्तिकारी को यदि पकड़ लेते तो उस पर इतने अत्याचार करते कि वह दोबारा क्रांति का नाम न ले. सिम्पसन नामक एक अंग्रेज अधिकारी तो अपने अत्याचारों के लिए अत्यंत कुख्यात हो गया था.

दिनेश चन्द्र इस युवा क्रांतिकारियों के दिमाग में चल रहे मानसिक द्वन्द को जीतने कि योजना बनाने में लग गए जिससे न केवल अंग्रेज सरकार के मन में क्रांतकारियों का भय छा जाये बल्कि उसके साथ साथ अन्य क्रांतिकारियों का मनोबल भी बढ जाये. उन्होंने सरकार के सबसे सुरक्षित स्थान रईटर बिल्डिंग में घुस कर अंग्रेजों को सबक सिखाने कि योजना बनाई. ८ दिसम्बर १९३० को बादल गुप्ता और बिनोय बसु के साथ दिनेश चन्द्र अंग्रेजी वेश भूषा में, अपने कोट में रिवोल्वर दबाये हुए आसानी से रईटर बिल्डिंग में घुस गए. सबसे पहले सिम्पसन को ही उसकी करनी का फल यमलोक पंहुचा कर दिया गया. इस अप्रत्याशित हमले से पुलिस  विभाग में मानों भूचाल ही आ गया. आनन फानन में तीनों को घेर लिया गया. चारों तरफ से फंसते देख अपने आपको जीवित न पकडे जाने का प्रण लिए हुए युवकों ने आत्मदाह का निश्चय किया.बादल गुप्ता ने जहर खाकर वहीँ प्राण दे दिए, बिनोय बसु और दिनेश चन्द्र ने अपने आपको गोली मार ली. बिनोय का हस्पताल में निधन हो गया जबकि दिनेश चन्द्र को बचा लिया गया.
इसके बाद वही राजनैतिक ड्रामा शुरू हुआ और अंत में केवल १९ वर्ष कि अवस्था में ७ जुलाई १९३१ को दिनेश चन्द्र को फँसी के तख्ते पर चड़ा दिया गया.
आज उनके १०० वें जन्मदिवस के अवसर पर ब्रिटिश सरकार के घर में घुस कर उसकी नींव को हिला देने वाले वीर दिनेश चन्द्र गुप्ता को हम स्मरण करते हैं जिनका बलिदान आज हमे अन्याय के विरुद्ध प्रेरणा दे रहा हैं और देता रहेगा.आजाद भारत में जन्म लेने वालों पर दिनेश चन्द्र सरीखे वीर क्रांतिकारियों का कितना उपकार हैं इतिहास इसका गवाह हैं.





बाघा जतीन मुखर्जी (जतीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय )

Bagha Jatin at the age of 24, in Darjeeling, 1903

बाघा जतिन ( 07 दिसम्बर, 1879 - 10 सितम्बर , 1915) जतींद्र नाथ मुखर्जी का जन्म जैसोर जिले में सन् 1879 ईसवी में हुआ था। पाँच वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया। माँ ने बड़ी कठिनाई से उनका लालन-पालन किया। 18 वर्ष की आयु में उन्होंने मैट्रिक पास कर ली और परिवार के जीविकोपार्जन हेतु स्टेनोग्राफी सीखकर कलकत्ता विश्वविद्यालय से जुड़ गए। वह बचपन से हई बड़े बलिष्ठ थे। सत्यकथा है कि २७ वर्ष की आयु में एक बार जंगल से गुजरते हुए उनकी मुठभेड़ एक बाघ (रॉयल बेन्गाल टाइगर) से हो गयी। उन्होंने बाघ को अपने हंसिये से मार गिराया था। इस घटना के बाद यतीन्द्रनाथ "बाघा जतीन" नाम से विख्यात हो गए थे।

बाघा जतीन मुखर्जी के बचपन का नाम जतीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय  था। वे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कार्यकारी दार्शनिक क्रान्तिकारी थे। वे युगान्तर पार्टी के मुख्य नेता थे। युगान्तर पार्टी बंगाल में क्रान्तिकारियों का प्रमुख संगठन थी।

1895 shortly before joining the University of Calcutta.

क्रांतिकारी जीवन
उन्हीं दिनों अंग्रेजों ने बंग-भंग की योजना बनायी। बंगालियों ने इसका विरोध खुल कर किया। यतींद्र नाथ मुखर्जी का नया खून उबलने लगा। उन्होंने साम्राज्यशाही की नौकरी को लात मार कर आन्दोलन की राह पकड़ी। सन् 1910 में एक क्रांतिकारी संगठन में काम करते वक्त यतींद्र नाथ 'हावड़ा षडयंत्र केस' में गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें साल भर की जेल काटनी पड़ी।
जेल से मुक्त होने पर वह 'अनुशीलन समिति' के सक्रिय सदस्य बन गए और 'युगान्तर' का कार्य संभालने लगे। उन्होंने अपने एक लेख में उन्हीं दिनों लिखा था-' पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देसी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवनयापन का अवसर देना हमारी मांग है।' क्रांतिकारियों के पास आन्दोलन के लिए धन जुटाने का प्रमुख साधन डकैती था। दुलरिया नामक स्थान पर भीषण डकैती के दौरान अपने ही दल के एक सहयोगी की गोली से क्रांतिकारी अमृत सरकार घायल हो गए। विकट समस्या यह खड़ी हो गयी कि धन लेकर भागें या साथी के प्राणों की रक्षा करें! अमृत सरकार ने जतींद्र नाथ से कहा कि धन लेकर भागो। जतींद्र नाथ इसके लिए तैयार न हुए तो अमृत सरकार ने आदेश दिया- 'मेरा सिर काट कर ले जाओ ताकि अंग्रेज पहचान न सकें।' इन डकैतियों में 'गार्डन रीच' की डकैती बड़ी मशहूर मानी जाती है। इसके नेता यतींद्र नाथ मुखर्जी थे। विश्व युद्ध प्रारंभ हो चुका था। कलकत्ता में उन दिनों राडा कम्पनी बंदूक-कारतूस का व्यापार करती थी। इस कम्पनी की एक गाडी रास्ते से गायब कर दी गयी थी जिसमें क्रांतिकारियों को 52 मौजर पिस्तौलें और 50हजार गोलियाँ प्राप्त हुई थीं। ब्रिटिश सरकार हो ज्ञात हो चुका था कि 'बलिया घाट' तथा 'गार्डन रीच' की डकैतियों में यतींद्र नाथ का हाथ था।

Bagha Jatin after the final battle. Balasore, 1915.

अंतिम समय

1 सितंबर 1915 को पुलिस ने जतींद्र नाथ का गुप्त अड्डा 'काली पोक्ष' (कप्तिपोद) ढूंढ़ निकाला। यतींद्र बाबू साथियों के साथ वह जगह छोड़ने ही वाले थे कि राज महन्ती नमक अफसर ने गाँव के लोगों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशश की। बढ़ती भीड़ को तितरबितर करने के लिए यतींद्र नाथ ने गोली चला दी। राज महन्ती वहीं ढेर हो गया। यह समाचार बालासोर के जिला मजिस्ट्रेट किल्वी तक पहुंचा दिया गया। किल्वी दल बल सहित वहाँ आ पहुंचा। यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था। जतींद्र उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी उनके साथ था। दोनों तरफ़ से गोलियाँ चली। चित्तप्रिय वहीं शहीद हो गया। वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे। इसी बीच यतींद्र नाथ का शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था। वह जमीन पर गिर कर 'पानी-पानी' चिल्ला रहे थे। मनोरंजन उन्हें उठा कर नदी की और ले जाने लगा। तभी अंग्रेज अफसर किल्वी ने गोलीबारी बंद करने का आदेश दे दिया। गिरफ्तारी देते वक्त जतींद्र नाथ ने किल्वी से कहा- 'गोली मैं और चित्तप्रिय ही चला रहे थे। बाकी के तीनों साथी बिल्कुल निर्दोष हैं। 'इसके अगले दिन भारत की आज़ादी के इस महान सिपाही ने अस्पताल में सदा के लिए आँखें मूँद लीं।।



खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी




सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी, वह स्वयं वीरता की अवतार
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार
नकली युद्ध व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़

महाराष्टर कुल देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झांसी में
ब्याह हुआ रानी बन आयी लक्ष्मीबाई झांसी में
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छायी झांसी में
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि सी वह आयी झांसी में

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजयाली छायी
किंतु कालगति चुपके चुपके काली घटा घेर लायी
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भायी
रानी विधवा हुई, हाय विधि को भी नहीं दया आयी

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक समानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हर्षाया
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झांसी आया

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झांसी हुई बिरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट फिरंगी की माया
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों बात
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात
उदैपुर, तंजौर, सतारा, कर्नाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

रानी रोयीं रनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार
नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान
बहिन छबीली ने रण चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी
यह स्वतंत्रता की चिन्गारी अंतरतम से आई थी
झांसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी

जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

रानी बढ़ी कालपी आयी, कर सौ मील निरंतर पार
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खायी रानी से हार
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

विजय मिली पर अंग्रेज़ों की, फिर सेना घिर आई थी
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय घिरी अब रानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार
घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार
रानी एक शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीरगति पानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

बाबू गेनू




(12 दिसंबर 1930 ) को आज ही के दिन महान क्रंतिकारी बाबू गेनू ने अंग्रेजो के खिलाफ़ लड़ते हुए अपना बलिदान दे दिया था ।


बाबू गेनू आजादी से पहले सवदेशी अंदोलन में लगे हुए थे ।

इन्होने तो अपनी एक फ़ौज बना रखी था ।
जो रात को पानी के जहाजो मे आने वाले विदेशी सामान को आग लगाया करते थे ।

और दुकानो के आगे लेट जाते थे और लोगो से कहते थे । अगर ये विदेशी सामान ख़रीदना है तो हमारे ऊपर से गुजर कर जाओ ।

एक दिन एक ट्र्क में विदेशी समान भर लाया जा रहा जिसके साथ पुलिस भी थी

बाबू गेनू ने कहा इस ट्र्क को मैं शहर की तरफ़ नहीं जाने दूगां ।

और ट्र्क के आगे लेट गये ।
और पुलिस के आदेश पर ट्र्क वाले बाबू गेनू की ऊपर से निकाल दिया

और ये महान क्रंतिकारी मात्र 22 साल की आयु में अंग्रेजो और विदेशी सामान के खिलाफ़ लड़्ता हुआ । शहीद हो गया ।

भारत माता और स्वदेशी अंदोलन के अपना बलिदान देने वाले महान क्रंतिकारी बाबू गेनू को पूरे भारत की तरफ़ से शत शत नमन ।


बाबू गेनू अमर रहे ।

वंदेमातरम ।

इन सात लोगों को नींद में से भी जगा देना चाहिए...


 आचार्य चाणक्य द्वारा रचित चाणक्य नीति में सफलता प्राप्त करने के लिए अनेक सूत्र दिए गए हैं। जिन्हें जीवन में उतारने वाले व्यक्ति को निश्चित ही हर कदम सफलता प्राप्त होगी। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

द्वारपाल, सेवक, पथिक, समय क्षुधातुर पाय।

भंडारी विद्यारथी, सोवत सात जगाय।।

द्वारपाल, नौकर, राहगीर, भूखा व्यक्ति, भंडारी, विद्यार्थी और डरे हुए व्यक्ति को नींद में से तुरंत उठा देना चाहिए।

आचार्य चाणक्य की यह नीति आज के समय में भी सटीक है। यदि कोई विद्यार्थी अधिकांश समय सोने में व्यतीत करता है तो उसे अच्छा परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता। अत: सोते हुए विद्यार्थी को नींद से जगा देना चाहिए। इसी प्रकार यदि कोई मालिक काम के समय में नौकर सोता हुआ देख ले तो उसे नौकरी से निकाल देगा। अत: उसे भी उठा देना चाहिए। कोई राहगीर या यात्री कहीं रास्ते में सोता हुआ दिखाई दे तो उसे भी तुरंत उठा देना चाहिए। क्योंकि ऐसे में उसके सामान की चोरी का भय रहता है। इसी प्रकार यदि कोई भूखा व्यक्ति सोता हुआ दिखाई दे तो उसे भी उठा देना चाहिए और खाना खिला देना चाहिए।

चाणक्य कहते हैं कि अगर कोई भण्डार गृह का रक्षक, द्वारपाल या कोई डरा हुआ व्यक्ति सो रहा है तो इन्हें भी तुरंत उठा देना चाहिए क्योंकि इनके सोने से बहुत से लोगों को हानि का सामना करना पड़ सकता है।

शहीद उधम सिंह के घर की हालत देखकर आंसू आते है.

कोंग्रेस की सरकार नेहरू परिवार को याद करने के लिए लाखों रुपये बहाती है, लेकिन कभी भी देश के सच्चे सपूतों को याद नहीं करती, पिछले वर्ष आर टी आई से पता चला कि सैकड़ों  करोड़ रुपये इंदिरा व राजीव जयंती के नाम पर फूंके गये थे, जबकि सच्चे क्रन्तिकारी रानी लक्ष्मी बाई से लेकर सुभाष चन्द्र बोस तक किसी को भी आजतक याद नहीं किया गया, आइये हम शहीद उधम सिंह को भारत स्वाभिमान की और से नमन व स्मरण करते है.....
शहीद उधम सिंह के घर का यह चित्र हमारी भारत स्वाभिमान की सुनाम इकाई द्वारा भाई परमिंदर जोल्ली द्वारा भेजा गया है.

जहा आज वो लोग सत्ताओ का सुख भोग रहे है...जिन्होंने कोई कुबानी नहीं दी..........वही ऐसे वीर शहीद जिन्होंने भारत माता के अपमान का बदला लेने के लिए अपनी संकल्प की अग्नि को २० साल तक दबाये रखा और....जलियावाला कांड का बदला लिया....ऐसे  ही  पंजाब के वीर शहीद उधम सिंह को हम नमन करते है..............
तथाकथित देशभक्त जिनके वंशज आज सत्ताओ के शीर्ष पर  में है.......उनका द्वारा लूटा हुआ धन स्विस बांको में पड़ा है, देश के ८४ करोड़ लोग भूखे मर रहे है........
आइये आपको दिखाते है, शहीद उधम सिंह का संगरूर , सुनाम  स्थित घर , जिसको देखकर कोई यह नहीं कह सकता की यह किसी महान क्रिन्तिकारी का घर है...
आज तक सचे क्रन्तिकारी का इस देश के गदारो ने जिन्होंने ६५न सालो तक साशन किया कोई स्मारक नहीं बनाया,,,..लेकिन यहाँ पर एक परिवार की और से ४०० से अधिक योजनाये चल रही है,,,........
शहीद उधम सिंह का स्मारक देखकर  आंसू आते है..........


जी हाँ, यही टुटा फूटा स्मारक है, हमारे देश अपनी जान देने वाले का,इसके अतिरिक्त कहीं और कही कोई स्मारक नहीं यही पुश्तैनी स्थान उनके घर होता था.............


आज तक नेताजी का कोई स्मारक , पंडित बिस्मिल का, चंदेर्शेखर आजाद का, राजिंदर लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह का कोई भी स्मारक नहीं है, (अगर कोई है तो वह सरकार का नहीं बल्कि देशभक्त लोगो का बनवाया हुआ है).............
नई दिल्ली। भारत के महान क्रांतिकारियों में ऊधम सिंह का विशेष स्थान है। उन्होंने जलियांवाला बाग नरसंहार के दोषी माइकल ओडायर को गोली से उड़ा दिया था।


कुछ लोग अपने बलपर ही इस कार्य को कर रहे है.....उनकी यादो को जिन्दा रखे हुए


पंजाब में संगरूर जिले के सुनाम गांव में 26 दिसंबर 1899 में जन्मे ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा किए गए कत्लेआम का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी जिसे उन्होंने गोरों की मांद में घुसकर 21 साल बाद पूरा कर दिखाया। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडायर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में शांति के साथ सभा कर रहे सैकड़ों भारतीयों को अंधाधुंध फायरिंग करा मौत के घाट उतार दिया था।
क्रांतिकारियों पर कई पुस्तकें लिख चुके जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर चमन लाल के अनुसार जलियांवाला बाग की इस घटना ने ऊधम सिंह के मन पर गहरा असर डाला था और इसीलिए उन्होंने इसका बदला लेने की ठान ली थी। ऊधम सिंह अनाथ थे और अनाथालय में रहते थे, लेकिन फिर भी जीवन की प्रतिकूलताएं उनके इरादों से उन्हें डिगा नहीं पाई। उन्होंने 1919 में अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर जंग-ए-आजादी के मैदान में कूद पड़े।
जाने माने नेताओं डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के विरोध में लोगों ने जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी थी, जिसमें ऊधम सिंह पानी पिलाने का काम कर रहे थे। पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडायर किसी कीमत पर इस सभा को नहीं होने देना चाहता था और उसकी सहमति से ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने जलियांवाला बाग को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग करा दी। अचानक हुई गोलीबारी से बाग में भगदड़ मच गई। बहुत से लोग जहां गोलियों से मारे गए, वहीं बहुतों की जान भगदड़ ने ले ली। जान बचाने की कोशिश में बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएं में छलांग लगा दी। बाग में लगी पट्टिका के अनुसार 120 शव तो कुएं से ही बरामद हुए।


जी हाँ, यही टुटा फूटा स्मारक है, हमारे देश अपनी जान देने वाले का,इसके अतिरिक्त कहीं और कही कोई स्मारक नहीं यही पुश्तैनी स्थान उनके घर होता था.............

सरकारी आंकड़ों में मरने वालों की संख्या 379 बताई गई, जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोगों की इस घटना में जान चली गई। स्वामी श्रद्धानंद के मुताबिक मृतकों की संख्या 1500 से अधिक थी। अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉ. स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से ज्यादा थी। ऊधम सिंह के मन पर इस घटना ने इतना गहरा प्रभाव डाला था कि उन्होंने बाग की मिट्टी हाथ में लेकर ओडायर को मारने की सौगंध खाई थी। अपनी इसी प्रतिज्ञा को पूरा करने के मकसद से वह 1934 में लंदन पहुंच गए और सही वक्त का इंतजार करने लगे।


जी हाँ, यही टुटा फूटा स्मारक है, हमारे देश अपनी जान देने वाले का,इसके अतिरिक्त कहीं और कही कोई स्मारक नही यही पुश्तैनी स्थान उनके घर होता था.............

ऊधम को जिस वक्त का इंतजार था वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला जब माइकल ओडायर लंदन के कॉक्सटन हाल में एक सेमिनार में शामिल होने गया। भारत के इस सपूत ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के आकार के रूप में काटा और उसमें अपनी रिवॉल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए। चमन लाल के अनुसार मोर्चा संभालकर बैठे ऊधम सिंह ने सभा के अंत में ओडायर की ओर गोलियां दागनी शुरू कर दीं। सैकड़ों भारतीयों के कत्ल के गुनाहगार इस गोरे को दो गोलियां लगीं और वह वहीं ढेर हो गया।
अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के बाद इस महान क्रांतिकारी ने समर्पण कर दिया। उन पर मुकदमा चला और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में यह वीर हंसते हंसते फांसी के फंदे पर झूल गया।


कुछ लोग अपने बलपर ही इस कार्य को कर रहे है.....उनकी यादो को जिन्दा रखे हुए

शहीद उधम सिंह के माता पिता उनको अनाथ छोड़कर बचपन में चल बसे थे, जब वह ८ वर्ष के थे,,,,कुछ समय बाद २-३ साल बाद ही उनके बड़े भाई भी उनको छोड़कर चले गए (देहांत हो गया)