एक कविता , जिसका जवाब मुझे कभी नही मिला …
क्योंकि…नदी… सागर मे समाने के बाद किनारे पर…… कभी लौट कर नही आती।
एक दिन, नदीं, बहते-बहते
किनारें से कहने लगी
कब तक चलोगे, मेरे साथ यूँही
थक न जाओगे?
अगर मै बह गयी ,तो क्या तुम मुझे
समेट पाओंगे ?
किनारें की भावनायें थी
भावनाओ में बह गया
जानता था, उत्तर 'ना' है
पर हाँ कह गया
बोला, जो तुम
कहों वोह ही सही|
तुम कभी इतनी
बहो तो सही|
बहाव के हर मोड़ पर, हाथ दूंगा |
पर्वत से सागर तक़ ,साथ दूंगा |
नदीं सकुचाई,
कुछ बही, कुछ थमी|
फिर समझी--
किनारा कब अपनी बाँहों में
नदी समेट पाया है,
अपना अस्तित्व तक़ गँवा बैठा
जब बहाव नदीं में आया है|
फिर भी दोनों साथ चलते रहे
किनारा
साथ में खुश था।
नदीं
बहने में खुश थी।
हर खुशी की एक उम्र होती है,
खुशी बड़ी हो, तो कम होती है।
इन दिनों, सागर ने
गागर बन, नदीं को समेटा है,
किनारा अब भी किनारे बैठा है |
जब-जब नदीं को
किनारें की याद आती है
अब वह लहर बन
किनारें को छूँ कर
चली जाती है
रही बात किनारें की,
हो किनारा, दर-किनार सा
किनारें खड़े होकर
जाती हुई नदीं के पाँव देखता है |
कोई नहीं जानता,
कोई नहीं समझता
किनारें को
कि
हाथ उसके गीले है
मगर मन रीता-रीता है,
पर्वत से सागर तक
नदीं का साथ
सूखा ही बीता है ।
क्योंकि…नदी… सागर मे समाने के बाद किनारे पर…… कभी लौट कर नही आती।
एक दिन, नदीं, बहते-बहते
किनारें से कहने लगी
कब तक चलोगे, मेरे साथ यूँही
थक न जाओगे?
अगर मै बह गयी ,तो क्या तुम मुझे
समेट पाओंगे ?
किनारें की भावनायें थी
भावनाओ में बह गया
जानता था, उत्तर 'ना' है
पर हाँ कह गया
बोला, जो तुम
कहों वोह ही सही|
तुम कभी इतनी
बहो तो सही|
बहाव के हर मोड़ पर, हाथ दूंगा |
पर्वत से सागर तक़ ,साथ दूंगा |
नदीं सकुचाई,
कुछ बही, कुछ थमी|
फिर समझी--
किनारा कब अपनी बाँहों में
नदी समेट पाया है,
अपना अस्तित्व तक़ गँवा बैठा
जब बहाव नदीं में आया है|
फिर भी दोनों साथ चलते रहे
किनारा
साथ में खुश था।
नदीं
बहने में खुश थी।
हर खुशी की एक उम्र होती है,
खुशी बड़ी हो, तो कम होती है।
इन दिनों, सागर ने
गागर बन, नदीं को समेटा है,
किनारा अब भी किनारे बैठा है |
जब-जब नदीं को
किनारें की याद आती है
अब वह लहर बन
किनारें को छूँ कर
चली जाती है
रही बात किनारें की,
हो किनारा, दर-किनार सा
किनारें खड़े होकर
जाती हुई नदीं के पाँव देखता है |
कोई नहीं जानता,
कोई नहीं समझता
किनारें को
कि
हाथ उसके गीले है
मगर मन रीता-रीता है,
पर्वत से सागर तक
नदीं का साथ
सूखा ही बीता है ।
No comments:
Post a Comment