चीन में लीत्सु नामक एक संत रहते थे। वे इतने गरीब थे कि कई बार उन्हें तथा उनकी पत्नी को भूखे पेट सोना पड़ता था। फिर भी उन्होंने कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। मेहनत से वे जो कुछ कमाते, उसी से अपना गुजारा करते।
विद्वत्ता, सादगी, सरलता और ईमानदारी की वजह से उनका नाम दूर-दूर तक फैल गया था। लोग दूरस्थ स्थानों से उनके दर्शन करने तथा उपदेश सुनने आते थे। धीरे-धीरे शुंग प्रांत के राजा तक भी लीत्सु की खबर पहुंची।
उन्होंने अपने मंत्री से उनके बारे में जानना चाहा तो मंत्री ने कहा - राजन वे एक महान संत हैं और गरीबी में दिन गुजार रहे हैं। आपको उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करनी चाहिए। राजा ने तत्काल धन-धान्य से भरी एक गाड़ी लीत्सु की कुटिया पर पहुंचा दी।
गाड़ी के साथ आए दूत ने लीत्सु से विनम्रतापूर्वक राजा का दान स्वीकार करने का आग्रह किया, पर लीत्सु ने सहज भाव से जवाब दिया - राजा के साथ मेरा कोई परिचय नहीं है। मैंने आज तक उन्हें देखा भी नहीं और न ही उन्होंने मुझे देखा है।
फिर भी उन्होंने मेरे लिए दान भेजा, इसके लिए मैं उनका आभारी हूं, पर मैं यह दान ग्रहण नहीं कर सकता। फिर जो आनंद मेहनत की कमाई में मिलता है, वह दान में मिली वस्तु में कहां। इस प्रकार लीत्सु ने दान लौटाकर राजा की अक्षय श्रद्धा पा ली।
वस्तुत: अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति परिश्रम के बल पर करने से जिस आत्मिक संतोष की अनुभूति होती है, वह मुफ्त में मिली वस्तु की उपलब्धि पर नहीं होती।
विद्वत्ता, सादगी, सरलता और ईमानदारी की वजह से उनका नाम दूर-दूर तक फैल गया था। लोग दूरस्थ स्थानों से उनके दर्शन करने तथा उपदेश सुनने आते थे। धीरे-धीरे शुंग प्रांत के राजा तक भी लीत्सु की खबर पहुंची।
उन्होंने अपने मंत्री से उनके बारे में जानना चाहा तो मंत्री ने कहा - राजन वे एक महान संत हैं और गरीबी में दिन गुजार रहे हैं। आपको उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करनी चाहिए। राजा ने तत्काल धन-धान्य से भरी एक गाड़ी लीत्सु की कुटिया पर पहुंचा दी।
गाड़ी के साथ आए दूत ने लीत्सु से विनम्रतापूर्वक राजा का दान स्वीकार करने का आग्रह किया, पर लीत्सु ने सहज भाव से जवाब दिया - राजा के साथ मेरा कोई परिचय नहीं है। मैंने आज तक उन्हें देखा भी नहीं और न ही उन्होंने मुझे देखा है।
फिर भी उन्होंने मेरे लिए दान भेजा, इसके लिए मैं उनका आभारी हूं, पर मैं यह दान ग्रहण नहीं कर सकता। फिर जो आनंद मेहनत की कमाई में मिलता है, वह दान में मिली वस्तु में कहां। इस प्रकार लीत्सु ने दान लौटाकर राजा की अक्षय श्रद्धा पा ली।
वस्तुत: अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति परिश्रम के बल पर करने से जिस आत्मिक संतोष की अनुभूति होती है, वह मुफ्त में मिली वस्तु की उपलब्धि पर नहीं होती।
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